19 April 2017

समणसुत्तं

`समणसुत्तं' नामक इस ग्रन्थ की संरचना या संकलना आचार्य विनोबाजी की प्रेरणा से हुई है। उसी प्रेरणा के फलस्वरूप संगीति या वाचना हुई और उसमें इसके प्रारूप को स्वीकृति प्रदान की गयी। यह एक विशिष्ट ऐतिहासिक घटना है।

विश्व के समस्त धर्मों का मूल आधार है--आत्मा और परमात्मा। इन्हीं दो तत्त्वरूप स्तम्भों पर धर्म का भव्य भवन खड़ा हुआ है। विश्व की कुछ धर्म-परम्पराएँ आत्मवादी होने के साथ-साथ ईश्वरवादी हैं और कुछ अनीश्वरवादी। ईश्वरवादी परम्परा वह है जिसमें सृष्टि का कर्ता-धर्ता या नियामक एक सर्वशक्तिमान् ईश्वर या परमात्मा माना जाता है। सृष्टि का सब-कुछ उसी पर निर्भर है। उसे ब्रह्मा, विधाता, परमपिता आदि कहा जाता है। इस परम्परा की मान्यता के अनुसार भूमण्डल पर जब-जब अधर्म बढ़ता है, धर्म का ह्रास होता है, तब-तब भगवान् अवतार लेते हैं और दुष्टों का दमन करके सृष्टि की रक्षा करते हैं, उसमें सदाचार का बीज-वपन करते हैं।

  • अनीश्वरवादी परम्परा

दूसरी परम्परा आत्मवादी होने के साथ-साथ अनीश्वरवादी है, जो व्यक्ति के स्वतंत्र विकास में विश्वास करती है। प्रत्येक व्यक्ति या जीव अपना सम्पूर्ण विकास कर सकता है। अपने में राग-द्वेषविहीनता या वीतरागता का सर्वोच्च विकास करके वह परमपद को प्राप्त करता है। वह स्वयं ही अपना नियामक या संचालक है। वह स्वयं ही अपना मित्र है, शत्रु है। जैनधर्म इसी परम्परा का अनुयायी, स्वतन्त्र तथा वैज्ञानिक धर्म है। यह परम्परा संक्षेप में `श्रमण-संस्कृति' के नाम से पहचानी जाती है। इस आध्यात्मिक परम्परा में बौद्ध आदि अन्य धर्म भी आते हैं। ईश्वरवादी भारतीय परम्परा `ब्राह्मण-संस्कृति' के नाम से जानी जाती है।

किसी धर्म की श्रेष्ठता अथवा उपादेयता उसकी प्राचीनता अथवा अर्वाचीनता पर अवलम्बित नहीं होती, किन्तु यदि कोई धार्मिक परम्परा प्राचीन होने के साथ-साथ सुदीर्घकाल तक सजीव, सक्रिय एवं प्रगतिशील रही है तथा लोक के उन्नयन, नैतिक विकास तथा सांस्कृतिक समृद्धि में प्रबल प्रेरक एवं सहायक सिद्ध हुई है तो उसकी प्राचीनता उस धर्म के स्थायी महत्त्व तथा उसमें निहित सर्वकालिक एवं सार्वभौमिक तत्त्वों की सूचक ही कही जा सकती है। जैनधर्म की परम्परा आचार और विचार दोनों दृष्टियों से निःसन्देह सुदूर अतीत तक जाती है। इतिहासज्ञों ने अब इस तथ्य को पूर्णतया स्वीकार कर लिया है कि तीर्थंकर वर्धमान महावीर जैनधर्म के मूल संस्थापक नहीं थे। उनसे पूर्व और भी तीर्थंकर हो गये हैं, जिन्होंने जिनधर्म की पुनर्स्थापना की और उसकी प्राणधारा को आगे बढ़ाया। यह ठीक है कि इतिहास की पहुँच जैनधर्म के मूल उद्गम तक नहीं है, किन्तु उपलब्ध पुरातात्त्विक एवं साहित्यिक तथ्यों के निष्पक्ष विश्लेषण से अब यह निर्विवाद सिद्ध हो गया है कि जैनधर्म एक अति प्राचीन धर्म है। वातरशना मुनियों, केशियों, व्रात्य-क्षत्रियों के विषय में ऋग्वेद, श्रीमद्भागवत आदि महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों में प्रचुर उल्लेख उपलब्ध हैं।

जैन-इतिहास में तिरसठ (63) `शलाका-पुरुषों' का वर्णन आता है। अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी नामक प्रत्येक सुदीर्घ कालखण्ड में ये शलाका पुरुष होते हैं, जो मानव-सभ्यता के विकास में अपने-अपने समय में धर्म-नीति की प्रेरणा देते हैं। इन शलाका-पुरुषों में २४ तीर्थंकरों का स्थान सर्वोपरि है। वर्तमान अवसर्पिणी कल्प में, उसके चतुर्थ कालखण्ड में जो २४ तीर्थंकर हुए हैं, उनमें सर्वप्रथम ऋषभदेव हैं जो राजा नाभि तथा माता मरुदेवी के पुत्र थे। इन्हें आदिनाथ, आदिब्रह्मा, आदीश्वर आदि भी कहा जाता है। सबसे अंतिम, २४ वें तीर्थंकर, भगवान् महावीर ढाई हजार वर्ष पूर्व हो गये हैं। तथागत बुद्ध भी इन्हींके समकालीन थे। भगवान् महावीर के २५० वर्ष पूर्व, २३वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ हो गये हैं, जो वाराणसी के राजा अश्वसेन के पुत्र थे। बौद्धागमों में महावीर का उल्लेख तो निगंठनातपुत्त के रूप में मिलता ही है, पार्श्व-परम्परा का उल्लेख भी चातुर्याम-धर्म के रूप में मिलता है। महावीर भी पार्श्व-परम्परा के प्रतिनिधि थे। यों देखा जाय तो काल की अविच्छिन्न धारा में न तो ऋषभदेव प्रथम हैं और न महावीर अंतिम। यह परम्परा तो अनादि-अनन्त है--न जाने कितनी चौवीसियाँ हो गयी हैं और आगे होंगी।

सांस्कृतिक विकास की दृष्टि से विचार करने पर ज्ञात होता है कि पारमार्थिक अथवा आध्यात्मिक भूमिका की अपेक्षा से वैदिक तथा श्रमण संस्कृतियों में विशेष अन्तर नहीं है, फिर भी व्यावहारिक क्षेत्र में, दोनों के तत्त्वज्ञान, आचार और दर्शन में अन्तर स्पष्ट है। दोनों संस्कृतियाँ आपस में काफी प्रभावित रही हैं, उनमें आदान-प्रदान होता रहा है और सामाजिक परिवेश तो दोनों का लगभग एक ही रहा है। जो अन्तर दिखाई पड़ता है, वह भी ऐसा नहीं है कि समझ में न आ सके। बल्कि, यह तो मनुष्य-सभ्यता के विकास के स्तरों को समझने में बहुत सहायक है। भारत के समृद्ध प्राचीन साहित्य में दोनों संस्कृतियों या परम्पराओं के पारस्परिक प्रभाव तथा आदान-प्रदान के विपुल दृश्य देखने को मिलते हैं। एक ही परिवार में विभिन्न विचारों के लोग अपने-अपने ढंग से धर्म-साधना करते थे।

  • आत्मवाद

आज जिसे हम जैनधर्म कहते हैं, प्राचीन काल में उसका और कोई नाम रहा होगा। यह सत्य है कि `जैन' शब्द `जिन' से बना है, फिर भी `जैन' शब्द अपेक्षाकृत अर्वाचीन है। भगवान् महावीर के समय में इसका बोधक शब्द `निर्ग्रन्थ' या `निर्ग्रन्थप्रवचन' था। इसे कहीं-कहीं `आर्यधर्म' भी कहा गया है। पार्श्वनाथ के समय में इसे `श्रमणधर्म' भी कहा जाता था। पार्श्वनाथ के पूर्ववर्ती २२वें तीर्थंकर अरिष्टनेमि के समय में इसे `अर्हत्‌धर्म' भी कहा जाता था। अरिष्टनेमि कर्मयोगी शलाका-पुरुष श्रीकृष्ण के चचेरे भाई थे। श्रीकृष्ण के द्वारा गाय की सेवा तथा गोरस का प्रचार वस्तुतः अहिंसक समाज-रचना की दिशा में एक मंगल प्रयास था। बिहार प्रदेश में भी जैनधर्म आर्हत्‌धर्म के नाम से प्रचलित रहा है। राजर्षि नमि मिथिला के थे, जो राजा जनक के वंशज थे। इनकी आध्यात्मिक वृत्ति का जैनआगम में सुन्दर चित्रण उपलब्ध है। इतिहास के पर्दे पर समय-समय पर अनेक नामपट बदलते रहे होंगे; लेकिन इतना कहा जा सकता है कि इस धर्म का, इस परम्परा और संस्कृति का मूल सिद्धान्त बीज-रूप में वही रहा है जो आज है और वह है आत्मवाद, अनेकान्तवाद। इसी आत्मवाद की उर्वरभूमि पर जैन धर्म-परम्परा का कल्पतरु फलता-फूलता रहा है। जैनधर्म के साधु आज भी `श्रमण' कहलाते हैं। `श्रमण' शब्द श्रम, समता तथा विकार-शमन का परिचायक है। उसमें प्रभूत अर्थ निहित है।

जैनधर्म का अर्थ है जिनोपदिष्ट या जिनप्रवर्तित कल्याण-मार्ग। `जिन' वे कहलाते हैं जिन्होंने अपने देहगत और आत्मगत अर्थात् बाह्याभ्यन्तर विकारों पर विजय प्राप्त कर ली है। आत्मा के सबसे प्रबल शत्रु हैं राग-द्वेष, मोहादि विकार। इसलिए `जैन' शब्द अपने में एक अर्थ रखता है--यह जाति वर्ग का द्योतक नहीं है। जो भी `जिन' के मार्ग पर चलता है, आत्मोपलब्धि के पथ का अनुसरण करता है, वह जैन है।

  • वीतराग-विज्ञानता

जैनधर्म का लक्ष्य पूर्ण वीतराग-विज्ञानता की प्राप्ति है। यह वीतराग-विज्ञान मंगलमय है, मंगल करनेवाला है, इसीके आलोक में मनुष्य `अरहन्त' पद को प्राप्त करता है। यह वीतरागता सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्ररूपी रत्नत्रय की समन्वित साधना से उपलब्ध होती है। श्रद्धा, ज्ञान और चारित्र का मिला-जुला पथ ही व्यक्ति को मुक्ति या सिद्धि तक ले जाता है। दर्शन, ज्ञान और चारित्र मिलकर ही मनुष्य को पूर्णता प्रदान करते हैं। जैनधर्म की सबसे प्रथम और मूलभूत सिखावन यही है कि श्रद्धापूर्वक विवेक की आँख से संसार को देखकर उसका यथार्थ ज्ञान प्राप्त करो और उसे जीवन में उतारो। लेकिन सम्पूर्ण आचार-विचार का केन्द्र-बिन्दु वीतरागता की उपलब्धि है। वीतरागता के समक्ष बड़े से बड़ा ऐश्वर्य व्यर्थ है। प्रवृत्ति हो या निवृत्ति, गार्हस्थ्य हो या श्रामण्य, दोनों स्थितियों में अन्तरात्मा में निरन्तर वीतरागता की वृद्धि ही श्रेयस्कर मानी गयी है। किन्तु अनेकान्तदृष्टि के बिना वीतरागता की उपलब्धि का मार्ग नहीं मिलता। यह अनेकान्तदृष्टि ही है जो प्रवृत्ति में भी निवृत्ति, और निवृत्ति में भी प्रवृत्ति के दर्शन कराकर यथार्थ और निवृत्ति का मार्गदर्शन कराती है।

  • अहिंसा

जैन-आचार का मूल अहिंसा है। उस अहिंसा का पालन अनेकान्तदृष्टि के बिना संभव नहीं है। क्योंकि जैन दृष्टि से हिंसा न करते हुए भी मनुष्य हिंसक हो सकता है और हिंसा करते हुए भी हिंसक नहीं होता। अतः जैनधर्म में हिंसा और अहिंसा कर्ता के भावों पर अवलम्बित है, क्रिया पर नहीं। यदि बाह्यतः होनेवाली हिंसा को ही हिंसा माना जाय तब तो कोई अहिंसक हो नहीं सकता क्योंकि जगत् में सर्वत्र जीव हैं और उनका घात होता रहता है। इसलिए जो सावधानतापूर्वक प्रवृत्ति करता है उसके भावों में अहिंसा है, अतः वह अहिंसक है और जो अपनी प्रवृत्ति में सावधान नहीं है उसके भावों में हिंसा है, अतः वह हिंसा न करने पर भी हिंसक होता है। यह सब विश्लेषण अनेकान्त-दृष्टि के बिना संभव नहीं है। अतः अनेकान्त-दृष्टि-सम्पन्न मनुष्य ही सम्यग्दृष्टि माना गया है और सम्यग्दृष्टि ही सम्यग्ज्ञानी और सम्यक्चारित्रशील होता है। जिसकी दृष्टि सम्यक् नहीं है उसका ज्ञान भी सच्चा नहीं है और न आचार ही यथार्थ है। इसीसे जैन-मार्ग में सम्यक्त्व या सम्यग्दर्शन का विशेष महत्त्व है। वही मोक्षमार्ग की आधार-शिला है।

संसार एक बन्धन है। उस बन्धन में जीव अनादिकाल से पड़ा है, इससे वह अपने यथार्थ स्वरूप को भूल उस बन्धन को ही अपना स्वरूप मानकर उसमें रम रहा है और उसकी यह भूल ही उसके इस बन्धन का मूल है। अपनी इस भूल पर दृष्टि पड़ते ही जब उसकी दृष्टि अपने स्वरूप की ओर जाती है कि मैं चैतन्यशक्ति-सम्पन्न हूँ और भौतिक ऊर्जा शक्ति से भी विशिष्ट शक्ति मेरा चैतन्य है जो अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तशक्ति का भण्डार है, यह श्रद्धा जगते ही उसे सम्यग्दृष्टि प्राप्त होती है और तब वह सम्यक् आचार के द्वारा अपने यथार्थ स्वरूप में स्थिर होने का प्रयत्न करता है। अतः जैनधर्म का आचारमार्ग सम्यग्ज्ञानपूर्वक वीतरागता तक पहुँचने का राजमार्ग है।

  • अनेकान्त

वस्तुतः देखा जाय तो इस विशाल लोक में सदेह व्यक्ति का अधिक-से अधिक ज्ञान भी सीमित, अपूर्ण और एकांगी ही है। वह वस्तु के अनन्त गुणों का समग्र अनुभव एक साथ कर ही नहीं पाता, अभिव्यक्ति तो दूर की बात है। भाषा की असमर्थता और शब्दार्थ की सीमा जहाँ-तहाँ झगड़े और विवाद पैदा करती है। मनुष्य का अहं उसमें और वृद्धि करता है। लेकिन अनेकान्त समन्वय का, विरोध-परिहास का मार्ग प्रशरत प्रदर्शित करता है। सबके कथन में सत्यांश होता है और उन सत्यांशों को समझकर विवाद को सरलता से दूर किया जा सकता है। जिसका अपना कोई हठ या कदाग्रह नहीं होता, वही अनेकान्त के द्वारा गुत्थियों को भलीभाँति सुलझा सकता है। यों प्रत्येक मनुष्य अनेकान्त में जीता है, परन्तु उसके ध्यान में नहीं आ रहा है कि वह ज्योति कहाँ है जिससे वह प्रकाशित है। आँखों पर जब तक आग्रह की पट्टी बँधी रहती है, तब तक वस्तुस्वरूप का सही दर्शन नहीं हो सकता। अनेकान्त वस्तु या पदार्थ की स्वतंत्र सत्ता का उद्घोष करता है। विचार-जगत् में अहिंसा का मूर्तरूप अनेकान्त है। जो अहिंसक होगा वह अनेकान्ती होगा और जो अनेकान्ती होगा, वह अहिंसक होगा।

आज जैनधर्म का जो कुछ स्वरूप उपलब्ध है, वह महावीर की देशना से अनुप्राणित है। आज उन्हींका धर्मशासन चल रहा है। महावीर दर्शन और धर्म के समन्वयाकार थे। ज्ञान, दर्शन एवं आचरण का समन्वय ही मनुष्य को दुःख-मुक्ति की ओर ले जाता है। ज्ञानहीन कर्म और कर्महीन ज्ञान--दोनों व्यर्थ हैं। ज्ञात सत्य का आचरण और आचरित सत्य का ज्ञान--दोनों एक साथ होकर ही सार्थक होते हैं।

  • वस्तु स्वभाव धर्म

जैन-दर्शन की यह देन बड़ी महत्त्वपूर्ण है कि वस्तु का स्वभाव ही धर्म है--वत्थु सहावो धम्मो। सृष्टि का प्रत्येक पदार्थ अपने स्वभावानुसार प्रवर्तमान है। उसका अस्तित्व उत्पत्ति, स्थिति और विनाश से युक्त है। पदार्थ अपने स्वभाव से च्युत नहीं होता--वह ज़ड़ हो या चेतन। सत्ता के रूप में वह सदैव स्थित है, पर्याय की अपेक्षा वह निरन्तर परिवर्तनशील है। इसी त्रिपदी पर सम्पूर्ण जैनदर्शन का प्रासाद खड़ा है। इसी त्रिपदी के आधार पर सम्पूर्ण लोक-व्यवस्था का प्रतिपादन जैन-दर्शन की विशेषता है। षड्द्रव्यों की स्थिति से स्पष्ट है कि यह लोक अनादि अन्त है, इसका कर्ता-धर्ता या निर्माता कोई व्यक्ति-विशेष या शक्ति-विशेष नहीं है। देशकाल से परे, वस्तुस्वभाव के आधार पर आत्मा की सत्ता स्वीकार करने पर समाज में विषमता, वर्गभेद, वर्णभेद आदि का स्थान ही नहीं रह जाता। ऐसी स्थिति में, व्यवहार-जगत् में महावीर जैसा वीतराग तत्त्वदर्शी यही कह सकता है कि समभाव ही अहिंसा है, मन में ममत्व का भाव न होना ही अपरिग्रह है। सत्य शास्त्र में नहीं अनुभव में है, ब्रह्म में चर्या करना ही ब्रह्मचर्य है। कर्म से ही मनुष्य ब्राह्मण होता है, कर्म से ही क्षत्रिय, कर्म से ही वैश्य और कर्म से ही शूद्र। चारित्रहीन व्यक्ति को सम्प्रदाय और वेश, धन और बल, सत्ता और ऐश्वर्य, ज्ञान और पोथियाँ त्राण नहीं देते। देवी-देवताओं या प्रकृति की विभिन्न शक्तियों को प्रसन्न करने के लिए तरह-तरह के कर्मकांडी अनुष्ठानों से भी मानव को त्राण नहीं मिल सकता। आत्म-प्रतीति, आत्मज्ञान और आत्म-लीनता--निजानन्द रसलीनता ही मनुष्य को मुक्ति दिलाती है। निश्चयतः यही सम्यक्त्व है। महावीर सही अर्थों में निर्ग्रन्थ थे--ग्रन्थ और ग्रन्थियों को भेदकर ही वे देह में भी विदेह थे। उन्हींकी निरक्षरी सर्वबोधगम्य पीयूषवर्षिणी वाणी की अनुगूँज वातावरण में है।

  • श्रावकाचार

साधना शक्त्यनुकूल ही हो सकती है। इसीलिए जैन आचार-मार्ग को श्रावकाचार और श्रमणाचार इन दो विभागों में विभाजित किया गया है। श्रावकों का आचार श्रमणों की अपेक्षा सरल होता है, क्योंकि वे गृह-त्यागी नहीं होते और संसार के व्यापारों में लगे रहते हैं। किन्तु श्रावक अपने आचार के प्रति निरन्तर सचेत रहता है और उसका लक्ष्य श्रमणधर्म की ओर बढ़ने का होता है। जब श्रावक की आत्मशक्ति बढ़ जाती है और रागद्वेषादि विकारों पर, क्रोधादि कषायों पर उसका नियंत्रण बढ़ने लगता है, तब वह धीरे-धीरे एक-एक श्रेणी बढ़कर श्रमण-पथ पर विचरने लगता है। बारह व्रतों का धीरे-धीरे निरतिचार पालन करते हुए और एकादश श्रेणियों को उत्तीर्ण कर श्रावक श्रमणदशा में पहुँचता है। वस्तुतः देखा जाय तो श्रावकधर्म श्रमणधर्म का आधार या पूरक है। यह उल्लेखनीय बात है कि जैनधर्म का सम्पूर्ण आचार आत्मलक्षी है, और श्रावक तथा श्रमण के लिए व्यवस्थित, क्रमिक विकासोन्मुख, ऊर्ध्वगामी संहिता उपलब्ध है। केवल नीति-उपदेश या पारस्परिक व्यवहार की दृष्टि से आचार-नियमों का प्रतिपादन जैनधर्म में नहीं है। शक्ति की सापेक्षता एवं विकास की प्रक्रिया में बाह्य क्रियाकाण्ड या रूढ़िगत लोकमूढ़ता, देवमूढ़ता या गुरुमुढ़ता को उसमें कतई स्थान नहीं है। अणुव्रतादि का पालन श्रावक को जहाँ साधक बनने की प्रेरणा देता है, वहाँ वह समाज के सुसंचालन में भी अपूर्व भूमिका निभाता है।

  • ग्रन्थ-परिचय

`समणसुत्तं' ग्रन्थ में जैन धर्म-दर्शन की सारभूत बातों का, संक्षेप में, क्रमपूर्वक संकलन किया गया है। ग्रन्थ में चार खण्ड हैं और ४४ प्रकरण हैं। कुल मिलाकर ७५६ गाथाएँ हैं।

ग्रंथ की संरचना या संकलना प्राकृत गाथाओं में की गयी है, जो गेय हैं तथा पारायण करने योग्य हैं। जैनाचार्यों ने प्राकृत गाथाओं को सूत्र कहा है। प्राकृत के सुत्त शब्द का अर्थ सूत्र, सूक्त तथा श्रुत भी होता है। जैन-परम्परा में सूत्र शब्द रूढ़ है। इसीलिए ग्रंथ का नाम `समणसुत्तं' (श्रमणसूत्रम्) रखा गया है। गाथाओं का चयन प्रायः प्राचीन मूल ग्रन्थों से किया गया है। अतः यह समणसुत्तं आगमवत् स्वतः प्रमाण है।

  • प्रथम खण्ड `ज्योतिर्मुख' है, जिसमें व्यक्ति `खाओ पीओ मौज उड़ाओ' की निम्न भौतिक भूमिका या बाह्य जीवन से ऊपर उठकर आभ्यन्तर जीवन के दर्शन करता है। वह विषय-भोगों को असार, दुःखमय तथा जन्म जरा मरणरूप संसार का कारण जानकर, इनसे विरक्त हो जाता है। रागद्वेष को ही अपना सबसे बड़ा शत्रु समझकर वह हर प्रकार से इनके परिहार का उपाय करने लगता है और क्रोध मान माया व लोभ के स्थान पर क्षमा, मार्दव, सरलता व सन्तोष आदि गुणों का आश्रय लेता है। कषायों का निग्रह करके विषय-गृद्ध इन्द्रियों को संयमित करता है। सभी प्राणियों को आत्मवत् देखता हुआ उनके सुख-दुःख का वेदन करने लगता है और दूसरों की आवश्यकताओं का सम्मान करते हुए परिग्रह का यथाशक्ति त्याग करता है। स्व व पर के प्रति सदा जागरूक रहता है तथा यतनाचारपूर्वक मोक्षमार्ग में निर्भय विचरण करने लगता है।

  • द्वितीय खण्ड `मोक्षमार्ग' है। इसमें पदार्पण करने पर व्यक्ति की समस्त शंकाएँ, भययुक्त संवेदनाएँ, आकांक्षाएँ तथा मूढ़ताएँ, श्रद्धा ज्ञान व चारित्र अथवा भक्ति ज्ञान कर्म की समन्वित त्रिवेणी में धुल जाती है। इष्टानिष्ट के समस्त द्वन्द्व समाप्त हो जाते हैं तथा समता व वात्सल्य का झरना फट पड़ता है। सांसारिक भोगों के प्रति विरत होकर उसका चित्त प्रशान्त हो जाता है। घर में रहते हुए भी वह जल में कमल की भाँति अलिप्त रहता है। व्यापार-धन्धा आदि सब कुछ करते हुए भी वह कुछ नहीं करता। श्रावक तथा क्रमशः श्रमण धर्म का अवलम्बन लेकर उसका चित्त सहज ही ज्ञान-वैराग्य तथा ध्यान की विविध श्रेणियों को उत्तीर्ण करते हुए धीरे-धीरे ऊपर उठने लगता है, यहाँ तक कि उसकी समस्त वासनाएँ निर्मूल हो जाती है, ज्ञान-सूर्य पूरी प्रखरता के साथ चमकने लगता है और आनन्द-सागर हिलोरें लेने लगता है। जब तक देह है, तब तक वह अर्हन्त या जीवन्मुक्त दशा में दिव्य उपदेशों के द्वारा जगत् में कल्याणमार्ग का उपदेश करते हुए विचरण करता है, और जब देह स्थिति या आयु पूर्ण हो जाती है तब सिद्ध या विदेह दशा को प्राप्त कर सदा के लिए आनन्द-सागर में लीन हो जाती है।

  • तृतीय खण्ड `तत्त्व-दर्शन' है, जिसमें जीव-अजीव आदि सप्त तत्त्वों का अथवा पुण्य-पाप आदि नौ पदार्थों का विवेचन है। जीवात्मा पुद्गल-परमाणु आदि षट् द्रव्यों का परिचय देकर उनके संयोग व विभाग द्वारा विश्व सृष्टि की अकृत्रिमता तथा अनादि-अनन्तता प्रतिपादित की गयी है।

  • चतुर्थ खण्ड `स्याद्वाद' है। ऊपर अनेकान्त का संक्षिप्त परिचय दिया जा चुका है। यही जैनदर्शन का प्रधान न्याय है। इस खण्ड में प्रमाण, नय, निक्षेप, व सप्तभंगी जैसे गूढ़ व गम्भीर विषयों का हृदयग्राही, सरल व संक्षिप्त परिचय दिया गया है। अन्त में वीरस्तवन के साथ ग्रन्थ समाप्त होता है।


कहा जा सकता है कि इन चार खण्डों में अथवा ७५६ गाथाओं में जैनधर्म, तत्त्व-दर्शन तथा आचार-मार्ग का सर्वाङ्गीण संक्षिप्त परिचय आ गया है। यों तो जैन-वाङ्मय विपुल है और एक-एक शाखा पर अनेक ग्रंथ उपलब्ध हैं। सूक्ष्मतापूर्वक अध्ययन करने के लिए तो निश्य निश्चय ही उन ग्रन्थों का सहारा लेना आवश्यक है। किन्तु साम्प्रदायिक अभिनिवेश से परे, मूलरूप में जैनधर्म-सिद्धान्त का, आचार-प्रणाली का, जीवन के क्रमिक-विकास की प्रक्रिया का, सर्वसाधारण को परिचय कराने के लिए यह एक सर्वसम्मत प्रातिनिधिक ग्रन्थ है। 


जैनं जयति शासनम्।

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