The 15-16th century was an age of transition in India. During this time several reform movements arose in Jainism. Lonkashah of Gujarat founded his Dhundhia order in Samvat 1508 (1451 AD), The Terapanth (Atyadhma movement) among the Digambaras arose in Samvat 1683 in Agra. The main founders of this movement were Banarasi Das of Agra and Amarchand of Sanganer. Taran-swami in Bundelkhand founded his Taranpanth sect of the Digambaras in Samvat 1563 (1506).
The Digambar Terapanth movement was against the domination of the Bhattarakas. They opposed worship of various minor gods and goddesses. Some Terapanthi practices, like not using flowers in worship, gradually spread throughout North India among the Digambars. The Taran-panthis on the other hand, traditionally do not have idols in their shrines at all.
Taranswami was a remarkable philosopher and author. He was born in Pushpavati (now Bilahari near Katni). His father was a government official there. His mama(uncle) lived in Sironj, where a Bhattaraka institution was present. When he was 8 years old, while accompanying his father to Sironj, he came across Bhattarak Shruta-kirti. The Bhattarak persuaded the boy to start attending the lectures where "Samayasar"was discussed. Later Taran-swami organized his group , meditated and preached at Semalkheri, Sukha and Rakh. His samadhi is at Nisaiji in Dist Guna.
He wrote 14 books. His language is very unique, being a blend of Prakrit, Sanskrit and Apabhransha. Note that at this time Jains have not been using Prakit for several centuries. His language was perhaps influenced by his reading of the books of Acharya kundakunda. Copies of his books are very hard to obtain. Mostly Kanjiswami has some lectures based on Taranswami's books.
The number of Taranpanthis is very small. Their shrinesare called Chaityalya (or some times Nisai/Nasia). At the altar (vimana) they have a book instead of an idol. The Taranpanthis were originally from 6 communities. These days they are gradually merging with other Jain in the area. In recent past, some of them have been followers of Kanjiswami of Songarh.
One interesting note. Rajneesh/Osho was born in a Taranpanthi family.
Notes
[1] Bundelkhand region is Lalitpur (UP), Guna, Sagar, Tikamgarh, Chhatarpur, Damoh districts and nearby region. The Taranpanthis are mainly found here.
[2] This Shrutakirti may be the same one who wrote Dharma-Pariksha, arivansha-purana and Parameshthisarin Apabhramsha. His teacher's teacher was Devendrakirti who originated from Gujarat and had placed his students at the Bhattarak seats of Surat as well as Chanderi in Bundelkhand region.
[3] The term Nasia for a temple may have been derived from the practice of saying "Jay jay jay,nisahi, nisahi, nisahi" when one enters a temple.
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Source: Internet
तारण पंथ का प्रादुर्भाव, किन परिस्थितियों में हुआ ? श्री तारण स्वामी के माता-पिता दिगम्बर जैन आम्नाय के अनुयायी थे, मामा श्री लक्ष्मण सिंघई भी दिगम्बर जैन आम्नाय के प्रमुख व्यक्ति थे। श्री तारण स्वामी भी दिगम्बर जैन आम्नाय में पैदा हुए; परन्तु जाग्रत चेतना का धनी ज्ञानी किसी साम्प्रदायिक बन्धन में बन्धकर नहीं रहता, जिसने सत्य स्वरूप आत्मा का साक्षात्कार किया हो और पूर्व में सत्य धर्म की देशना सुनी समझी हो तथा सातिशय पुण्य का उदय लेकर आया हो, वह किसी का अंधानुकरण नहीं करेगा। यही कारण है कि पुष्पावती में जन्में तारण को पाँच वर्ष की बाल वय में ही माता-पिता सेमरखेड़ी लेकर आये। विलक्षण प्रतिभा के धनी, जिन्हें ग्यारह वर्ष की बाल्यावस्था में सम्यक्दर्शन हो गया, वैराग्य भाव जाग्रत हो गया। चन्देरी में पढ़ने भेजा, वहाँ धर्म के नाम पर होने वाले पापाचार, क्रियाकाण्ड जड़वाद की बहुलता को देखकर अन्तर में विद्रोह पैदा हो गया।
ReplyDeleteयह महान जैन धर्म जो जग के जीवों को कल्याणकारी स्वतंत्रता का पुजारी शुद्ध अध्यात्मवाद सत्य धर्म का उद्घोषक, आज यह धर्म के नाम पर क्या हो रहा है, पंडित, पुजारी, भट्टारक और समाज के प्रमुख, आज जैन धर्म का कैसा पतन कर रहे हैं ! तारण स्वामी के जीव ने दो हजार वर्ष पूर्व भगवान महावीर के समवशरण में प्रत्यक्ष सत्य धर्म की देशना सुनी थी, जैन दर्शन के मर्म को समझा था, वह संस्कार यहाँ प्रकट हो गये।
इक्कीस वर्ष की आयु में बाल ब्रम्हचार्य व्रत का संकल्प लेकर सत्य धर्म जो अपना आत्म स्वभाव है उसका शंखनाद करने लगे ‘‘अप्पा सो परमप्पा’’ प्रत्येक जीव आत्मा स्वभाव से शुद्धात्मा है। अन्तर्जागरण, भेदज्ञान, सम्यक्दर्शन का शंखनाद होने लगा। भोले भव्य जीव ऐसी आत्मा की चर्चा सुनकर प्रभावित होने लगे, सत्य धर्म अपने आत्म स्वरूप को समझने लगे। अध्यात्मवाद में बाह्य क्रियाकाण्ड, पूजा-पाठ की कोई प्रधानता होती ही नहीं है, यह तो सब संसार का ही कारण है। धर्म साधना, आत्म हित में जाति-पांति सम्प्रदाय का भी कोई बन्धन नहीं होता।
एक दीपक जला तो हजारों दीपक जलने लगे, चारों तरफ सत्य धर्म, जैन धर्म की जय-जयकार होने लगी।
इससे बौखलाकर पांडे पंडित भट्टारकों ने नाना प्रकार से प्रलोभन दिये परन्तु जिसके जीवन में सत्य धर्म का प्रादुर्भाव हुआ हो वह असत्, अधर्म, अन्याय के सामने झुकता नहीं है, फलस्वरूप जहर दिया गया, बेतवा में डुबाया गया, पर जिसके द्वारा लाखों जीवों का कल्याण होने वाला हो उसे कौन मार सकता है ? नाना प्रकार के उपद्रव अत्याचार सहने के बाद उनके प्रमुख अनुयायियों ने यह तारण पंथ का विधान बनाया, जिसका मूल आचार-सप्त व्यसन का त्याग, अठारह क्रियाओं का पालन करने वाला तारण पंथी कहलायेगा तथा तारण पंथ की साधना पद्धति भेदज्ञान तत्व निर्णय, वस्तु स्वरूप, द्रव्यदृष्टि और ममल स्वभाव की साधना है। जिसके अन्तर्गत श्री गुरू महाराज ने पाँच मतों में चैदह ग्रन्थों की रचना की जो शुद्ध अध्यात्म से परिपूर्ण जिनेन्द्र कथित जैन दर्शन का मर्म बताने वाले हैं। anuj taran
I support taran pant I love taran swami ......and my gurubar......I love jain dharam....
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